बेदी के बारे में मशहूर रहा है कि वे किसी 'मूड' के वश में आकर नहीं, बल्कि सोच-सोचकर, ईट पर ईट जमाने की तरह, कहानियाँ लिखते थे। उनके यहाँ न सतही भावुकता पाई जाती हैं, न वे पैगम्बर की तरह कोई उपदेश देते नजर आते हैं, और न ही वे उस निराशावाद से ग्रस्त हैं जिसे कुछ लेखकों ने फैशन के तौर पर ओढ़ लिया। उनका न कोई बना-बनाया साँचा है और न कोई पूर्वाग्रह। वे कहानी में हमेशा कुछ तलाश करते हुए मालूम होते हैं जैसे कि इसी तलाश में जीवन की सार्थकता, उसकी सच्चाई हो, और उनके बिंब इस कदर पुरअसर हैं कि जीवन की यह सच्चाई मन की गहराइयों में उतरती चली जाती है। एक ही समय में गंभीर और चुलबुली भाषा, और शब्दों पर खेल जाने की क्षमता, जो बेदी का अपना हिस्सा है, उन्हें हमारे सामने एक विशिष्ट कथाकार के रूप में प्रस्तुत करती हैं-ऐसा कथाकार जो किसी की कार्बन-कापी नहीं, शुद्ध ऑरिजिनल है, और एक लंबे समय तक कहानीकारों की भीड़ में सबसे अलग, तनहा खड़ा दिखाई देता रहेगा।
नारी को गहराई से जानने और उसकी रूह को पेश करने की कोशिश बेदी के यहाँ शिद्दत से पाई जाती है। और इसीलिए उन्होंने कुछेक ऐसे नारी-पात्र गढ़े हैं, जैसे उपन्यास की रानो, नाटक रुख्शंदा की इसी नाम की प्रमुख पात्र, या फिर लाजवंती और इंदु जैसी गृहिणियां, कलाकार कीर्ति और वेश्या कल्याणी, जो मन को हिलोरकर रख देती हैं और सदा-सदा के लिए अपनी छाप छोड़ जाती हैं।
बेदी की एक विशेषता, जो उन्हें उनके समकालीनों से अलग करती है, कैनवस की व्यापकता है। बेदी की कहानियाँ संख्या में कम जरूर हैं, मगर उनकी कोई भी कहानी किसी दूसरी कहानी का दोहराव नहीं लगती, और शायद यही कारण है कि बेदी के कथा-साहित्य को कुछेक खानों में बाँट देना संभव नहीं हुआ है। हर कहानी एक नए, एक अनछुए विषय को लेकर सामने आती है, और यही कारण है कि नाटकीयता के अभाव के बावजूद बेदी की कहानियाँ हमें बाँधकर रखती हैं।